» » » » आनंददायी शिक्षा व मेहनती शिक्षा का ध्रुवीकरण : प्रो कृष्ण कुमार

यह आलेख प्रोफेसर कृष्ण कुमार द्वारा लिखा गया है।
   आज की शिक्षा व्यवस्था की तरह पाठ्य-पुस्तकें भी ’’परीक्षा केन्द्रित’’ हो गई है। पाठ्य-पुस्तकों के जरिए हर चीज़ का परीक्षण होता है। इन्हीं की धुरी पर स्कूल चलते है तथा इन्हीं के जरिए स्कूल चलते हैं। वास्तव में हम देखते है कि सरकारी तंत्र का उद्देश्य भी यही रहता है कि प्रत्येक विद्यालय में समय पर किताबें पहुँच जाएँ और पढ़ाई शुरू हो जाएँ।

जहाँ बाल साहित्य बच्चों को खुली सोच, उनके अनुभवों को प्राथमिकता, सवाल उठाने की आजादी, समस्याओं के हल खोजने का आत्मविश्वास आदि देता है पाठ्यपुस्तकें इसके विपरीत रटे रटाये जवाब, दूसरों द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन, परीक्षा उत्तीर्ण करने का भय देती है। यही कारण है कि बाल साहित्य के क्षेत्र में लम्बे समय से काम करने वाल लोग इसकी व्याप्ति को लेकर इतने संघर्षरत है। यह स्थिति केवल बाल साहित्य की ही नहीं है वरन् कला, संगीत, खेलकूद, नश्त्य, पुस्तकालय, आर्ट एवं क्राफ्ट आदि क्षेत्र भी इसी प्रकार के संघर्ष से जूझ रहे हैं।
एक ध्रुवीकरण है आनंददायी शिक्षा व मेहनती शिक्षा का। सरकारी विद्यालयों में जहाँ आनंददायी शिक्षा का बोलबाला बढ़ रहा है वहीं प्राइवेट विद्यालयों में प्रतिस्पर्धात्मक शिक्षा का वर्चस्व है। — आनंद व मेहनत दोनों शिक्षा के अनिवार्य पहलु है और इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। वास्तव में यह बँटवारा अमीरों व गरीबों के बीच का बँटवारा है। वे कहते हैं कि गरीबों की शिक्षा आनंददायी होगी और अमीरों की शिक्षा मेहनत से भरी जो कि प्रतियोगिता वाले जीवन के लिए बच्चों को तैयार करेगी।

बाल साहित्य की जिस संघर्ष के दौर से गुजर रहा है साहित्य भी उसी संघर्ष का सामना कर रहा है। विभिन्न भूमिकाओं में बंधे इस जीवन में जब हम साहित्य की किसी भी विधा चाहे वह कविता हो, कहानी हो, नाटक हो, उपन्यास हो में डुबते जाते हैं तभी हम एक अलग ही प्रकार की मुक्ति का, स्वतंत्रता का आनंद ले पाते हैं। यह एक बहुत ही सहज व स्वाभाविक प्रक्रिया होती है। साहित्य इसी मुक्ति का माध्यम है।
साहित्य अगर मुक्ति देता है तो शिक्षा व्यवस्था नियंत्रण को प्रेरित करती है। साहित्य चुनने की आज़ादी देता है तो शिक्षा व्यवस्था एक दबाव बनाने की चेष्टा करती है। साहित्य नित नये ज्ञान की रचना की बात करता है तो शिक्षा जो प्रवर्तित हो चुका है उसे जानने पर जोर देती है। इन्हीं के विरोधाभासी गुणों के कारण ही बाल साहित्य की तरह साहित्य पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। साहित्य और बाल साहित्य पर मंडराने वाला एक और बड़ा संकट ’’परीक्षा’’ का है। वास्तव में पुस्तकालय को लेकर बच्चों के साथ-काम करने वाले कितने ही जमीनी कार्यकर्ताओं से बातचीत के दौरान यह सवाल आया है कि आखिर इतनी मेहनत के बाद भी हम आगे बढ़ रहे हैं ऐसा अहसास क्यों नहीं होता है? कहाँ कमी रह रही है, समझ नहीं आता?

कुछ प्रश्न है जिन पर बाल साहित्य के क्षेत्र में काम करने वालों से लेकर उच्च शिक्षा तक के सभी लोगों को सोचने की आवश्यकता है। जब साहित्य शिक्षा में आता है तो उसका क्या होता है? क्या वो यह मौका देता है कि हम साहित्य को अपने ढंग से पढ़ सके, उसका कोई एक ही अर्थ न निकालें? क्या वह समालोचनात्मक सोच के साथ अपनी प्रतिक्रिया देने की स्वतंत्रता देता है? ये सारे सवाल बाल साहित्य से भी बहुत करीब से जुड़े है। अतः बाल साहित्य की बहस को और शिक्षा के साथ उसके रिश्ते पर बहस को आगे बढ़ाना हम सभी की जिम्मेदारी है।

About प्रवीण त्रिवेदी

Hi there! I am Hung Duy and I am a true enthusiast in the areas of SEO and web design. In my personal life I spend time on photography, mountain climbing, snorkeling and dirt bike riding.
«
Next
Newer Post
»
Previous
Older Post

1 comments: