» » बच्चों को कुछ और बेहतर चाहिए। लेकिन क्या हमारी योजनाओं के केंद्र में बच्चे हैं?


यदि हम गरीब बच्चों को आगे बढ़ने के लिए आधारभूत सुविधाएं और स्वच्छ पर्यावरण दे सकें, तो हम सबसे महान देश बन सकते हैं। लेकिन क्या हमारी योजनाओं के केंद्र में बच्चे हैं?
पत्रलेखा चटर्जीविकास संबंधी मुद्दों पर लिखने वाली वरिष्ठ स्तंभकार
भारत क्या तरक्की कर सकता है, यदि उसके बच्चे पिछड़े हों? झुग्गियों में रहने वाले उन बच्चों के लिए ′स्मार्ट सिटीज′ या ′स्वच्छ भारत′ अभियान का आखिर क्या मतलब है, जिन्हें शौचालय जाने या पानी लाने के लिए गंदगी के बीच से होकर चलकर लाइन में लगना पड़ता है, क्योंकि ये सुविधाएं उनकी झुग्गियों में उपलब्ध नहीं हैं? भारत में बच्चों की आबादी में ऐसे बच्चों की काफी संख्या है, लेकिन नीति निर्धारण संबंधी विमर्श में शायद ही उनकी आवाज सुनी जाती है।
पिछले हफ्ते मुझे दिल्ली, हैदराबाद, भुवनेश्वर जैसे कई शहरों की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले ऐसे ही कुछ बच्चों को सुनने का मौका मिला। ये बच्चे एक कार्यशाला में आए थे, जिसे भारत में 21 वीं सदी के बच्चों के अनुकूल स्मार्ट सिटी बनाने पर केंद्रित एक राष्ट्रीय सम्मेलन के समांतर किया गया था। ये बच्चे ′हमारा बचपन′ नामक संगठन से जुड़े हैं और दिल्ली में इस सम्मेलन का आयोजन बर्नार्ड वान लीर फाउंडेशन, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स, शहरी विकास मंत्रालय तथा द स्कूल ऑफ प्लानिंग ऐंड आर्किटेक्चर ने किया था।
दुनिया की तकरीबन आधी आबादी अब शहरों में रह रही है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 37.7 करोड़ लोग शहरों में रहते हैं। वैश्विक रूप से शहरी आबादी में वृद्धि में 60 फीसदी की हिस्सेदारी शहरों में पैदा होने वाले बच्चों की है। जाहिर है, तेज शहरीकरण अपरिहार्य होता जा रहा है। शहरों में बच्चों के लिए अच्छे स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र और खेल के मैदान उपलब्ध होते हैं, मगर यह हर बच्चे के लिए नहीं है। वास्तव में शहरों में बच्चों के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य अवसरों के मामले में भारी असमानताएं देखी जा सकती हैं। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि कम से कम 9.3 करोड़ भारतीय झुग्गियों में रहते हैं। भारत में छह वर्ष तक के हर आठ शहरी बच्चों में से एक झुग्गी में रहता है। ऐसी जगहों में रहने वाले बच्चों का भविष्य क्या है, जब वे अहम सुविधाओं से ही महरूम हैं?
मैंने जिन बच्चों से बात की, वे शहरों में आधारभूत संरचनाओं की गैरबराबरी को लेकर बहुत स्पष्ट थे। वे भारत की बेहतर तस्वीर चाहते हैं। दिल्ली के नरेला में पुनर्वास कॉलोनी में रहने वाली 15 वर्ष की शहनाज खातून के घर पर न तो शौचालय है और न ही पीने के पानी की व्यवस्था। वह बताती है कि कैसे उसे रोज जद्दोजहद करनी पड़ती है। हर शाम छह बजे उसे सार्वजनिक हैंडपंप से पानी लेने के लिए कतार में लगना पड़ता है और अक्सर उसे धक्कामुक्की सहनी पड़ती है। जबकि यह वक्त उसके होमवर्क करने का होता है। ऐसी परिस्थितियों में इंजीनियर बनने के उसके सपने का क्या होगा? उसकी पढ़ाई ऐसी वजहों से प्रभावित हो रही है, जिस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है। भुवनेश्वर के 15 वर्ष के रुपक गौड़ा का कहना है कि शहर नियोजकों को उसके जैसे बच्चों की भी राय लेनी चाहिए। वह कहता है, हम अच्छी सड़क, पीने का साफ पानी के साथ ही घर में अच्छी सुविधाएं चाहते हैं। हम अपने चाइल्ड क्लब के जरिये बच्चों को सुरक्षित और स्वस्थ परिस्थितियां मुहैया कराने को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि हम पर भी भरोसा किया जाए। ये बच्चे बताते हैं कि किस तरह उनके परिवारों को गरीबी और गंदगी में गुजर-बसर करनी पड़ती है और उन्हें घटिया सेवाओं तक के लिए अक्सर अधिक पैसे देने पड़ते हैं।
शहरी गरीब बच्चों के हक के लिए राष्ट्रीय अभियान चलाने वाले ‘हमारा बचपन’ के अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ता बताते हैं कि उनके प्रयासों का कुछ असर भी दिख रहा है। बच्चे अपनी मुश्किलों को समझ पा रहे हैं और अपनी मांगों को लेकर मुखर हो रहे हैं, जैसा कि पिछले हफ्ते नजर आया। इस कार्यशाला में झुग्गी में रहने वाले बच्चों को गुड़गांव के एक निजी स्कूल के बच्चों के साथ भी घुलने-मिलने का मौका मिला। इन बच्चों ने मिलकर आदर्श शहर की परिकल्पना पर भी काम किया। यह देखना दिलचस्प था कि सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी से इतर इन बच्चों ने बिना वरिष्ठ लोगों के हस्तक्षेप के अपनी मांगों का खाका तैयार किया और बताया कि उन्हें न केवल रोजाना पीने का साफ पानी चाहिए, उनके आसपास का परिवेश भी अच्छा हो और सार्वजनिक परिवहन की बेहतर सुविधा हो। इस सम्मेलन में शहरी विकास मंत्री वैंकेया नायडू ने कहा, दुनिया में सर्वाधिक 15.8 करोड़ बच्चे भारत में हैं, जिसकी वजह से हमारा देश सबसे युवा है। यह जनसांख्यिकी हमें दूसरे देशों से आगे करती है।

हम यदि इन बच्चों को आगे बढ़ने के लिए बेहतर पर्यावरण उपलब्ध करा सकें, तो हम सबसे महान देश भी बन सकते हैं। ये बातें सुनने में अच्छी लगती हैं, लेकिन क्या हमारी योजनाओं के केंद्र में बच्चे हैं?


आलेख साभार : अमर उजाला

About प्रवीण त्रिवेदी

Hi there! I am Hung Duy and I am a true enthusiast in the areas of SEO and web design. In my personal life I spend time on photography, mountain climbing, snorkeling and dirt bike riding.
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