देश के हजारों सेकेंडरी स्कूलों में इन दिनों बोर्ड की परीक्षाएं चल रही
हैं, जिनका संचालन तीन केंद्रीय व करीब पचास राज्य स्तरीय परीक्षा बोर्ड व
परिषदों द्वारा होता है। स्कूली विद्यार्थियों के लिए ये दिन काफी तनाव के
हैं। उनके मां-बाप की नींद भी इन दिनों उड़ी रहती है। स्कूलों की परीक्षाओं
के खत्म होते ही यूनिवर्सिटी परीक्षाओं का दौर शुरू हो जाएगा। हमारे देश
में परीक्षाएं जिस ढंग से आयोजित होती हैं और जिस तरह के तनावों को वे जन्म
देती हैं, उनसे हमारी शिक्षा प्रणाली की उन बीमारियों के संकेत मिलते हैं,
जो उसे घुन की तरह खाए जा रही हैं।
हिन्दुस्तान में 19 मार्च को छपी एक तस्वीर चौंकाने वाली थी। इस तस्वीर में बिहार के वैशाली (हाजीपुर) जिले में महनार स्थित एक स्कूल की चार मंजिला इमारत की खिड़कियों पर टंगे लोग 10वीं की परीक्षा दे रहे बच्चों को नकल की पर्चियां देने में लगे दिखते हैं। स्कूल की बिल्डिंग के बाहर सैकड़ों लोग खड़े हुए यह तमाशा देख रहे थे। राज्य के शिक्षा मंत्री पी के शाही का कहना है कि सरकार के लिए सामूहिक नकल को रोकना एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि एक-एक बच्चे को चार-पांच परिजन नकल कराने आ रहे हैं। जहां कहीं भी इस सामूहिक नकल को रोकने की कोशिश की जाती है, वहां अधिकारियों पर पत्थर फेंके जा रहे हैं और पुलिस वालों व शिक्षकों को रिश्वत देकर पर्ची थमाने का काम लिया जा रहा है।
हमारी परीक्षा प्रणाली में पेपर लीक करने, नकल कराने, नंबरों की बंदरबांट और ट्यूशनखोरी जैसी समस्याएं लंबे अरसे से चली आ रही हैं। देश का कोई भी हिस्सा इससे अछूता नहीं। किंतु बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के बड़े हिस्सों में बोर्ड परीक्षाओं में जैसी सामूहिक नकल देखी जा रही है, वह इन राज्यों और समूचे देश के लिए चिंताजनक बात है। क्या कारण है कि सामूहिक नकल की समस्या उत्तर भारत के कुछ हिंदीभाषी राज्यों तक सीमित है और इसका ऐसा भयावह रूप हमें देश के अन्य क्षेत्रों में नहीं दिखाई देता?
ऐसा लगता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के अनपढ़ मां-बाप शिक्षा के सही मायने नहीं जानते और वे चाहते हैं कि उनके बच्चे किसी भी तरह 10वीं-12वीं की परीक्षा अच्छी श्रेणी से पास कर लें। इस हताशा का कारण यह भी हो सकता है कि ग्रामीण स्कूलों में नियमित पठन-पाठन की व्यवस्था अब ध्वस्त हो चुकी है और बच्चे परीक्षा में बिना नकल के पास होने को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार व अन्य हिंदीभाषी राज्य सरकारें स्कूली परीक्षा में बढ़ रही सामूहिक नकल की प्रवृत्ति पर भले ही राजनीतिक व प्रशासनिक कारणों से ढीला-ढाला रवैया अपनाती रही हों, किंतु अगर इसको प्रभावी ढंग से रोका नहीं गया, तो यह इन राज्यों की समूची युवा-पीढ़ी को अंधेरे में धकेलने की तरह होगा।
आखिर क्या कारण है कि इन्हीं राज्यों में सीबीएसई व आईसीएसई की परीक्षाओं में सामूहिक नकल की समस्या नहीं आती? क्या कारण है कि पिछले कई वर्षो में नीतीश सरकार पुलिस की भर्ती में सीसीटीवी कैमरे का प्रयोग करके नकल और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सफल रही, किंतु 10वीं-12वीं की परीक्षाओं में वह नकलचियों के सामने असहाय नजर आ रही है?
उत्तर प्रदेश व बिहार के ज्यादातर सरकारी व निजी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई की समुचित व्यवस्था अब नहीं है। स्कूली शिक्षकों की भर्ती-व्यवस्था पारदर्शी नहीं है। ऐसे में, अध्यापकों का पढ़ाने-लिखाने से कोई रागात्मक संबंध नहीं है। उनकी कोई जवाबदेही निर्धारित नहीं की गई है कि वे कैसा और कितना पढ़ाते हैं?
एएसईआर-प्रथम के वर्ष 2014 के सर्वेक्षणों से पता चला है कि पांचवीं कक्षा के आधे विद्यार्थी दूसरी कक्षा की हिंदी की किताबें भी ठीक ढंग से नहीं पढ़ पाते हैं और छोटा-मोटा गुणा-भाग भी नहीं कर पाते। क्या प्राथमिक और स्कूली शिक्षा पर हजारों करोड़ रुपये खर्च करने वाली राज्य सरकारें इन शिक्षकों व शिक्षा-विभाग के अधिकारियों की कोई जवाबदेही तय करेंगी या यह अराजकता यूं ही चलती रहेगी?और भी कई गंभीर सवाल हैं, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। क्या कोई भी राज्य अपनी स्कूली और उच्च शिक्षा को दुरुस्त किए बिना लाखों नौजवानों को रोजगार के साधन दिला सकता है?
जब बिना पढ़े डिग्रियां बटोरने वाले ग्रामीण व कस्बाई नौजवानों को नौकरियां नहीं मिलेंगी, तो क्या वे अराजकता, अपराध और हिंसक गतिविधियों में संलग्न नहीं होंगे? जाहिर है, सामूहिक नकल सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है। हमारी स्कूली शिक्षा और राज्य परीक्षा बोर्डो-परिषदों को भ्रष्ट नौकरशाही व राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करके ऐसे स्वायत्तशासी निकायों को सौंपने की जरूरत है, जो समर्पित शिक्षाविदों द्वारा संचालित किए जाएं।
सूचना-प्रौद्योगिकी महंगी जरूर है, किंतु इन राज्यों के बच्चों को अन्य राज्यों के बच्चों के समकक्ष बनाने के लिए यह जरूरी है। सामूहिक नकल के अभिशाप से मुक्ति के लिए शिक्षकों की शिक्षा व प्रशिक्षण में क्रांतिकारी बदलाव की जरूरत है। ग्रामीण स्कूलों में शहरों से आने वाले शिक्षकों की अनुपस्थिति की समस्या से निपटने के लिए स्थानीय युवाओं को शिक्षक बनाना होगा। स्थानीय निकायों को भी स्कूलों के प्रबंध में व्यापक अधिकार देने होंगे। वर्तमान वार्षिक परीक्षा प्रणाली को सूचना-प्रौद्योगिकी के उपयोग के जरिये सतत व आंतरिक परीक्षा में बदलना होगा, जिससे सामूहिक नकल की आशंकाएं बहुत कम हो जाएंगी। अब तक चली आ रही ‘रटंत विद्या’ के स्थान पर ‘सानंद विद्या’ को लाना होगा, जो बचपन की मासूमियत के साथ तालमेल बैठा सके और बच्चे मौज-मस्ती के साथ पढ़ाई-लिखाई कर सकें। ( ये लेखक श्री हरिवंश चतुर्वेदी, निदेशक बिमटेक के अपने विचार हैं)
हिन्दुस्तान में 19 मार्च को छपी एक तस्वीर चौंकाने वाली थी। इस तस्वीर में बिहार के वैशाली (हाजीपुर) जिले में महनार स्थित एक स्कूल की चार मंजिला इमारत की खिड़कियों पर टंगे लोग 10वीं की परीक्षा दे रहे बच्चों को नकल की पर्चियां देने में लगे दिखते हैं। स्कूल की बिल्डिंग के बाहर सैकड़ों लोग खड़े हुए यह तमाशा देख रहे थे। राज्य के शिक्षा मंत्री पी के शाही का कहना है कि सरकार के लिए सामूहिक नकल को रोकना एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि एक-एक बच्चे को चार-पांच परिजन नकल कराने आ रहे हैं। जहां कहीं भी इस सामूहिक नकल को रोकने की कोशिश की जाती है, वहां अधिकारियों पर पत्थर फेंके जा रहे हैं और पुलिस वालों व शिक्षकों को रिश्वत देकर पर्ची थमाने का काम लिया जा रहा है।
सामूहिक नकल क्या सिर्फ प्रशासनिक समस्या है या इसकी जड़ें अब हमारे सांस्कृतिक-राजनीतिक गिरावट तक पहुंच गई हैं?
हमारी परीक्षा प्रणाली में पेपर लीक करने, नकल कराने, नंबरों की बंदरबांट और ट्यूशनखोरी जैसी समस्याएं लंबे अरसे से चली आ रही हैं। देश का कोई भी हिस्सा इससे अछूता नहीं। किंतु बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के बड़े हिस्सों में बोर्ड परीक्षाओं में जैसी सामूहिक नकल देखी जा रही है, वह इन राज्यों और समूचे देश के लिए चिंताजनक बात है। क्या कारण है कि सामूहिक नकल की समस्या उत्तर भारत के कुछ हिंदीभाषी राज्यों तक सीमित है और इसका ऐसा भयावह रूप हमें देश के अन्य क्षेत्रों में नहीं दिखाई देता?
क्या यह महज एक प्रशासनिक समस्या है या इसकी जड़ें हमारे सांस्कृतिक व राजनीतिक अवमूल्यन तक पहुंच गई हैं? जो बच्चे नकल करके 10वीं पास करेंगे, उनका आगे क्या हश्र होगा? क्या वे आगे की पढ़ाई लगन व ईमानदारी से कर पाएंगे? लगता है, सामूहिक नकल और इसका कारोबार सिर्फ 10वीं की परीक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि इन राज्यों में विश्वविद्यालय स्तर की परीक्षाएं भी अंधेरगर्दी का शिकार हो चुकी हैं। नकल कराने में अभिभावकों व परिजनों की सक्रिय हिस्सेदारी हमें सोचने पर भी मजबूर करती है कि आखिर वे ऐसा क्यों कर रहे हैं?
ऐसा लगता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के अनपढ़ मां-बाप शिक्षा के सही मायने नहीं जानते और वे चाहते हैं कि उनके बच्चे किसी भी तरह 10वीं-12वीं की परीक्षा अच्छी श्रेणी से पास कर लें। इस हताशा का कारण यह भी हो सकता है कि ग्रामीण स्कूलों में नियमित पठन-पाठन की व्यवस्था अब ध्वस्त हो चुकी है और बच्चे परीक्षा में बिना नकल के पास होने को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार व अन्य हिंदीभाषी राज्य सरकारें स्कूली परीक्षा में बढ़ रही सामूहिक नकल की प्रवृत्ति पर भले ही राजनीतिक व प्रशासनिक कारणों से ढीला-ढाला रवैया अपनाती रही हों, किंतु अगर इसको प्रभावी ढंग से रोका नहीं गया, तो यह इन राज्यों की समूची युवा-पीढ़ी को अंधेरे में धकेलने की तरह होगा।
आखिर क्या कारण है कि इन्हीं राज्यों में सीबीएसई व आईसीएसई की परीक्षाओं में सामूहिक नकल की समस्या नहीं आती? क्या कारण है कि पिछले कई वर्षो में नीतीश सरकार पुलिस की भर्ती में सीसीटीवी कैमरे का प्रयोग करके नकल और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सफल रही, किंतु 10वीं-12वीं की परीक्षाओं में वह नकलचियों के सामने असहाय नजर आ रही है?
यह विचार करने योग्य प्रश्न है कि सामूहिक नकल का प्रकोप कुछ राज्यों तक क्यों सीमित है? आज के हालात में वैसे तो देश का कोई भी राज्य राजनीतिक भ्रष्टाचार, कुशासन, अव्यवस्था और अराजकता से पूर्ण मुक्त नहीं है। क्षेत्रीय, आर्थिक, सांस्कृतिक व सामाजिक कारणों से कई राज्यों में अराजकता स्कूली व विश्वविद्यालयी शिक्षा पर पूरी तरह से हावी हो चुकी है, जबकि कुछ राज्य इससे काफी सीमा तक बचे हुए हैं। कुछ राज्यों की स्कूली परीक्षाओं में व्याप्त धांधली एक स्पष्ट वर्ग-विभाजन को अभिव्यक्त करती है।
उत्तर प्रदेश व बिहार के ज्यादातर सरकारी व निजी स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई की समुचित व्यवस्था अब नहीं है। स्कूली शिक्षकों की भर्ती-व्यवस्था पारदर्शी नहीं है। ऐसे में, अध्यापकों का पढ़ाने-लिखाने से कोई रागात्मक संबंध नहीं है। उनकी कोई जवाबदेही निर्धारित नहीं की गई है कि वे कैसा और कितना पढ़ाते हैं?
एएसईआर-प्रथम के वर्ष 2014 के सर्वेक्षणों से पता चला है कि पांचवीं कक्षा के आधे विद्यार्थी दूसरी कक्षा की हिंदी की किताबें भी ठीक ढंग से नहीं पढ़ पाते हैं और छोटा-मोटा गुणा-भाग भी नहीं कर पाते। क्या प्राथमिक और स्कूली शिक्षा पर हजारों करोड़ रुपये खर्च करने वाली राज्य सरकारें इन शिक्षकों व शिक्षा-विभाग के अधिकारियों की कोई जवाबदेही तय करेंगी या यह अराजकता यूं ही चलती रहेगी?और भी कई गंभीर सवाल हैं, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। क्या कोई भी राज्य अपनी स्कूली और उच्च शिक्षा को दुरुस्त किए बिना लाखों नौजवानों को रोजगार के साधन दिला सकता है?
जब बिना पढ़े डिग्रियां बटोरने वाले ग्रामीण व कस्बाई नौजवानों को नौकरियां नहीं मिलेंगी, तो क्या वे अराजकता, अपराध और हिंसक गतिविधियों में संलग्न नहीं होंगे? जाहिर है, सामूहिक नकल सिर्फ कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है। हमारी स्कूली शिक्षा और राज्य परीक्षा बोर्डो-परिषदों को भ्रष्ट नौकरशाही व राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करके ऐसे स्वायत्तशासी निकायों को सौंपने की जरूरत है, जो समर्पित शिक्षाविदों द्वारा संचालित किए जाएं।
स्कूली शिक्षा में गुणात्मक सुधार सिर्फ सांगठनिक परिवर्तनों से संभव नहीं होगा। हिंदीभाषी राज्यों में स्कूली शिक्षा में भारी वित्तीय निवेश की जरूरत है, ताकि जरूरी बुनियादी आधुनिक सुविधाएं हर स्कूल को उपलब्ध हों। सूचना-प्रौद्योगिकी के व्यापक प्रयोग द्वारा पठन-पाठन की गुणवत्ता में पर्याप्त सुधार किए जा सकते हैं। शिक्षकों व विद्यार्थियों को लैपटॉप, टेबलेट देकर उस पारंपरिक शिक्षण प्रणाली को तिलांजलि दी जा सकती है, जो बच्चों को रट्टू तोता बनाती है।
सूचना-प्रौद्योगिकी महंगी जरूर है, किंतु इन राज्यों के बच्चों को अन्य राज्यों के बच्चों के समकक्ष बनाने के लिए यह जरूरी है। सामूहिक नकल के अभिशाप से मुक्ति के लिए शिक्षकों की शिक्षा व प्रशिक्षण में क्रांतिकारी बदलाव की जरूरत है। ग्रामीण स्कूलों में शहरों से आने वाले शिक्षकों की अनुपस्थिति की समस्या से निपटने के लिए स्थानीय युवाओं को शिक्षक बनाना होगा। स्थानीय निकायों को भी स्कूलों के प्रबंध में व्यापक अधिकार देने होंगे। वर्तमान वार्षिक परीक्षा प्रणाली को सूचना-प्रौद्योगिकी के उपयोग के जरिये सतत व आंतरिक परीक्षा में बदलना होगा, जिससे सामूहिक नकल की आशंकाएं बहुत कम हो जाएंगी। अब तक चली आ रही ‘रटंत विद्या’ के स्थान पर ‘सानंद विद्या’ को लाना होगा, जो बचपन की मासूमियत के साथ तालमेल बैठा सके और बच्चे मौज-मस्ती के साथ पढ़ाई-लिखाई कर सकें। ( ये लेखक श्री हरिवंश चतुर्वेदी, निदेशक बिमटेक के अपने विचार हैं)
अवलोकन और सभी सुझाव अच्छे हैं। ग्रामीण क्षेत्र ही नहीं, नगर पालिकाओं के स्कूलों की हालत भी बुरी है।
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